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Tuesday, December 28, 2010

हवा ! मुझे माफ़ कर दो


ओ री हवा
दोस्त तो हजारों में है
मगर निभाई सिर्फ तुमने //

तुम ही एक हो
जो मेरे घर आती हो
कभी खिडकियों से
कभी दरवाजों से
और प्यार की एक चप्पी दे
नींद में सुला देती हो //

बादलों को भी साथ लाती हो
मेरे घर की बगीया
हरी -भरी करने के लिए //

मेरे फेफड़ों को
मजबूत करने वाली हवा
मैं अपनी दोस्ती ठीक से नहीं निभा रहा
प्रदूषित कर रहा हूँ मैं
आदमी जो ठहरा
हवा का मोल नहीं समझता //

6 comments:

  1. भहुत आकर्षक रचना !

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  2. आदमी जो ठहरा
    हवा का मोल नहीं समझता

    बहुत ही सुन्‍दर शब्‍द ।

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  3. आदमी जो ठहरा
    हवा का मोल नहीं समझता
    सही कहा है... हम कहां समझते हैं मोल...

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  4. अत्यंत सुन्दर रचना.

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  5. हमें भी अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना है।

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